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Friday 22 June 2012

मेरा ‘मन’ बड़ा पापी -नहीं-मन-मोहना


मेरा मन बड़ा पापी -नहीं-मन-मोहना 
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मन बड़ा निर्मल है
न अवसाद न विषाद
ना ज्ञान   ना विज्ञान
न अर्थ ना अर्थ शास्त्र
चंचल मन बाल हठ  सा
बड़ा गतिशील है..
गुडिया खिलौने देख
रम जाता है ! कभी -
राग क्रोध से ऊपर …
न जाने मन क्या है ?
लगता है कई मन हैं ?
एक कहता है ये करो
दूजा "वो" करो
भ्रम फैलाता  है मन
मुट्ठी बांधे आये हैं
खाली हाथ जाना है
किसकी खातिर फिर प्यारे
लूट मारकर उसे सता कर
गाड़ रहे --वो खजाना हैं
प्रश्न बड़ा करता है मन  !
माया मोह के भंवर उलझ मन
चक्कर काटते फंस जाता है
निकल नहीं पाता ये मन
कौन उबारे ? भव-सागर है
कोई "ऊँगली" उठी तो
हैरान परेशां बेचैन मन
कचोटता हैं अंतर जोंक सा
खाए जाता है घुन सा
खोखला कर डालता है
मन बड़ा निर्मल है
बेदाग, सत्य , ईमानदार
बहुत पसंद है इसे निर्मलता
ज्योति परम पुंज आनंद
सुरभित हो खुश्बू बिखेरते
खो जाता है निरंकार में
अपने ही जने परिवार में
इनसे स्नेह उनसे ईर्ष्या
कौड़ी के लिए डाह-कुचक्र
देख -देख मन भर जाता है
बोझिल हो मन थक जाता है
मन बड़ा 'जालिम ' है
प्रेम, प्रेमी, प्रेमिका, रस-रंग
हीरे -जवाहरात महल आश्रम छोड़ मन
न जाने क्यों कूच कर जाता है .....
कहाँ चला जाता है मन ??
कौन है बड़ा प्यारा रे ! बावरा मन ??
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर
कुल्लू यच पी -७-७.५५ पूर्वाह्न
३१.०५.२०१२





DE AISA AASHISH MUJHE MAA AANKHON KA TARA BAN JAOON

2 comments:

  1. bahut hi sundar likha hai apne.....lajwab

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  2. आदरणीया अनामिका जी मन के बारे में लिखी ये रचना आप को अच्छी लगी सुन ख़ुशी हुयी
    आभार
    भ्रमर ५

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