संगिनी हूं संग चलूंगी
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जब सींचोगे
पलूं बढूंगी
खुश हूंगी मै
तभी खिलूंगी
बांटूंगी
अधरों मुस्कान
मै तेरी पहचान बनकर
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वेदनाएं भी
हरुंगी
जीत निश्चित
मै करूंगी
कीर्ति पताका
मै फहरूंगी
मै तेरी पहचान बनकर
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अभिलाषाएं
पूर्ण होंगी
राह कंटक
मै चलूंगी
पाप पापी
भी दलूंगी
संगिनी हूं
संग चलूंगी
मै तेरी पहचान बनकर
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ज्योति देने को
जलूंगी
शान्ति हूं मैं
सुख भी दूंगी
मै जिऊंगी
औ मरूंगी
पूर्ण तुझको
मै करूंगी
सृष्टि सी
रचती रहूंगी
सर्वदा ही
मै तेरी पहचान बनकर
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर5
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश ,
भारत
इतनी सुंदर और हृदय को तल तक जाकर स्पर्श कर लेने वाली कविता को मैंने इतने विलम्ब से पढ़ा, यह मेरे लिए खेद का विषय है भ्रमर जी। छोटे-छोटे शब्द-युग्म लेकर इतने विस्तृत एवं गहन भावों को अभिव्यक्त करने वाली यह कविता निस्संदेह असाधारण है। आपको मेरा नमन।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आप का आदरणीय , रचना ने आप के मन को छुआ बहुत खुशी हुई संगिनी होती ही ऐसी हैं जो जीवन को खुशनुमा बना देती है, जय श्री राधे।
ReplyDeleteनारी के समर्पित भावों वाली सुंदर कोमल कविता।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन।